Saturday, September 28, 2024

बावली ब्यार

Leashing emotions is not easy for me; however, I am not willing to walk paths where being trampled and spurned is destiny.


बावली ब्यार
बहा लाई फिर इक बार 
मेरी गली ले आई 
बेसाख़्ता -
हज़ार उल्फ़तों का नूर

बीज था 
वो प्यार का, 
परमात्मा का लिए स्वरूप
ना अपेक्षा की  क़ैद थी 
ना बांधने की कोई उमंग 
मायूसी, उम्मीदों की 
नहीं छिड़ी थी छाओं धूप;
फिर भी अंतराल में 
जाने क्यों ठन पड़ी 
ख़ुद अपने आप से ही जंग!

शायद वक़्त बड़ा नावक़्त था?
तुम प्रीत से भयभीत थे 
और हम इस यक़ीन पे थे 
अड़े हुए अटल टिके -
मिले मुहब्बतों का सिला हमें
ऐसा तक़दीर ने लिखा नहीं;
फिर क्युँकर 
हमारे दयार पर प्यार की 
नादार सी कली खिले,
कि सूखी हमारी है ज़मीन
सदा बंजर, बेजान खंडहर रही  
तो बाग़बानी का कैसे याँ 
कोई भी सिलसिला चले ?

हैं धर्मो कर्म के भी अनगिनत 
कई कई निरर्थक चोचले
याँ बात बेबात में ही नित 
बन जाते कई मसअले;
शास्त्रों का लिखा तो पता नहीं
पर शक का जहां व्यापार हो 
रब की रज़ा का ख़याल हो 
उस चमन को जिला 
हमें क्या मिले 
क्या ना मिले;
सो इस सफर के दौर में 
मन मद खो गया 
तो क्या हुआ -
प्यास के दर्द से अब कोई 
रहा गिला नहीं।

बेहतर है आज आओ हम 
मिलजुल के यूँ बाँट लें 
निभा दें दीन दुनिया से 
अपनी वफ़ा की ज़िम्मेदारियाँ,
बर्बादियों की कुछ ऐसे हम ठान लें -
लगाओ हम पे तुम अपने वक़्त की 
बारहा बंदिशो पे बंदिशें
और हम भी सांस भींच कर 
अपनी सींच जी भर के जरा रोक लें -
नन्ही सी पौध है अभी
हर मर्म को परे धरे
चलो इसे जड़ से ही 
उखाड़ दें।

इन काविशों का हो हुसूल
कुछ भी ना तो ए सखा
इतना तो बस ज़रूर हो,
इस नाक़दरी से हमारे 
अहं को मिले ज़रा सुकून तो; 
ना तुम झुको
ना हम गिरें
अड़े रहें हम आन पर 
दिल होवे चाहे पाश पाश
हमारी चाहतों को पर मिले 
कभी कोई सा न दोष 
इसलिए खुद से तो कर ली दिल्लगी 
पर करी ना किसी घड़ी 
हमने प्यार की बंदगी क़ुबूल
यूंही चलते रहो तुम अपनी राह पर
हम रहेंगे खड़े तुम से दूर

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