Tuesday, December 27, 2011

kya likhun?

क्या लिखूं
और क्यूँ भला
कई पन्ने तो छपते हैं
निस दिन
हर्फ़ बिखरते रहते है
ख्यालों, उम्मीदों अव्हेल्नाओ की लहर बन
इंसानी फितरत को छेड़ते हुवे
बस ठेलते ही रहते हैं
भावनाओं को कभी
इस ठौर तो कभी उधर -
लिखूं तो तभी
जब जिसे पढ़
ठहराव के पड़ाव पर
पाँव टिकें!






Tuesday, December 20, 2011

i'm not a saint
for terms and conditions
of a holy soul
require to say
one's life belongs to all
and not yea
so i claim
am content
to be the happenstance
that revels to fulfil myself
as the life bowl
if empty within
leaves nothing to offer
or outpour.


Friday, December 02, 2011

रस्ते की हवा से
जब शमा-ए-लौ थरथराती है
अनजाने ही बेवक्त अंधेरों का
एहसास दिलाती है
धरती के आँगन में
लिए डगर साहिलों की
बादलों के सफीनों में नज़र
झिलमिलाती है
पिच्छली यादें और
आईंदा का सफ़र
दोनों बाकी हैं.



उलझन है -
उतर पडूं
या यूँही निरूद्देश बहूँ
जो  ठहरूं 
तो क्या गुम न हो रहेंगे
लफ्ज़ जो पतवार बने
इस ठौर ले आये 
खुद को खे लायी  हूँ इतना
अपनी नियति संग
अब जो दफ़न होवूँ
तो अताम्सम्मान
मेरा कफ़न बने.

और जो छोड़ चलूँ
मन के बहाव को
बिन लंगर
चाहत के गुप्त अंधेरों
सालों का मौन कहाँ टूटेगा
जो कहेगी सच
जुबान मेरी तुम से
तो तुम्हारा बेईमान अधर
अंतर का मान  टूटेगा


सो इन खामोश गहरायिओं 
और डूबते अंधेरों के दरमियाँ
मन मान मर्यादा की
गंदली पोटली में ही लुप्त
रहे तो हमारे संसार में
सन्नाटा है.