मेरी सुबह, मेरी शाम -
घर से काम
और वापस घूमती मुड़ती सड़कें तमाम
हैं उदास -
पर ठहरी हुई है आस इस ठौर पे
कि तुमने हमारे साथ से यूँ कह दिया -
बस सब मुझ पे छोड़ दो.।
कल आँगन में थी पसरी धूप
मुझमें जीने की चाह जागता
किरणों में जगमगाता तुम्हारा स्वरूप
और आज की ये सर्द शाम
सिकुड़ती साँसों से कह रहीं अविराम
पूछती हैं मुस्कुरा दुहरा कर
तुम्हारा हमेशा दिया जवाब -
कुछ नहीं बदला ?
छिटकी चाँदनी बादलों को परे सरका
खिड़की से झांका तो अहसास हुआ -
अंधेरा है वहाँ
जलाए थे ख़्वाबों के तुमने द्वीप जहां
मेरी रात बेचैन हुई
तो प्रशनगो मेरी तनहाई हुई -
कुछ नहीं बदला?
नमी आँखो की झिलमिला
जब बरस पड़ी बेकल
तब स्पष्ट सरगोशी में
काल ये सच बोल गया,
है सही सब कुछ वही
हमारी कायनात
हमारे जज़्बात नही
बस बदले सिर्फ़ तुम -
और कुछ नहीं बदला।