उस प्रदेश की गीली मिट्टी पे
नंगे पाँव चली, बचपन खेली
कंकर, गोली, और गुड्डी बन
स्वच्छंद फिरी कुछ यूँ कि
नील गगन में निर्भय ही
अन्य पतंगो संग पेंच लड़ाई थी;
जून की लू और जनवरी की बोरसी -
इन की तपिश ने सेंका यूँ कि
ज़िंदगी की झुलस कभी
मन विचलित ना कर पायी थी।
वो सोंधी ख़ुशबू सावन की -
जिस से रिझ कर जनप्रीत में
मन मतवाला होता था;
साँझ की पूर्वा बयार ने आँगन में
गेंदा, चमेली, जूही, चम्पा,
रात की रानी, रजनीगंधा का
प्यार पुरम पूर उँडेला था;
प्यार पुरम पूर उँडेला था;
उसी आँगन पड़ी चारपाई पर से
टूटते तारे तकते तकते,
तकिया पर सर रखे
ख़्वाबों की चूनर बुन जाती थी,
फिर ध्रुव से दिशा इंगित करवा
सुबह अपनी राहों का निशाँ
ढूंढ पाती थी.
ढूंढ पाती थी.
अहा! बड़ा खुश मस्त सा
जाम पिया वहाँ
प्रकृति के अलबेले घेरे में -
नीम, बरगद तले झूला झूले
जिन की मस्त उठानों ने
जीवन में उड़ानें भरने की
अदा हमें सिखलायी थी।
बेरें खाईं, गुठली चूसी
चटखार सहित इमली खायी थी,
गंगा ने सींचा इस मिट्टी को
ऐसे की धैर्य, संतोष के अंकुर फूटे
खायी रोटी नमक जो इस धाम -
खरी वाणी और सच को चुन कर
सबल मनोबल लिए अडिग कदम से
कर्मयोग पे पर बने रहने की
निष्ठा जानी थी.
सो दूर सही -
हूँ नतमस्तक ऋण से, विधाता
गर्व का आभास भी है
आज सात समुंदर पार सही
पर बेटी हूँ बिहार की।
2 comments:
That was superb...got the sondhi baas from ur poem and thank Almighty that we had all the blessings to appreciate all that our janambhoomi gave us...beautiful composition
Superb expression, emotional words
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