Friday, June 07, 2013

Jotted on 22.4.13

सरकते सायों के दरमियाँ 
थम कर जब 
पलट काँधे से परे तका 
तो पाया -
एक अकेली लौ 
यूं थरथरा रही थी 
मानों सामने फिसलते अंधेरों को 
दुरदुरा रही थी
मेरा हौंसला बढ़ा रही थी 
बस इतनी दमक से 
कि देख सकूं एक कच्ची डगर 
जो सामने बढ़ने का नियोता दिए चली थी,
काफी है ये प्रकाश 
मेरे आज के लरजते दिल को
कि संभल उठा सकूँ कदम ...
डगमगाते स्वाभिमान को यकीन की कमी थी 
तुमने बड़ी आसानी से
राह दिखा पुरी कर दी।

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