रंग मंच पर कोलाहल है-
कलयुग काल के पृष्ठ प्रधान पर
हर दिवस सजती सुर्ख़ी काली है...
काली बदली घनघोर समाँ है
लोभ, लूट, कभी क्लेश द्वेष हैं
सजे पात्र सामाजिक सन्नाटों में ,
शर्मसार करते संदर्भ भी हैं
खबरों में अक्सर सुन पड़ती
रीत रिवाजों की रुदाली है;
श्रेष्ठ परम्पराएँ हो ध्वस्त पड़ी हैं
आचरण, आवरण अक्सर
अपनी उच्च संस्कृति पे गाली हैं.
क्या यही समय है -
शास्त्र ज्ञान और संत व्याख्यान में इंगित बेला
क्या अब कालकी, मैत्रेयी, महदी की आली है?
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