Saturday, February 07, 2009

Despondency

I want to live
for alive I am not
yes breathe and eat I do
I see, smell, hear and feel too
yet alive for certain, I am not.

Those values that
I'd read about
values that were once applauded
in quarters of home, in schools,
were sung aloud
on the roads
of my happy childhood-
these seem to have left,
leaving bereft
the world that I now form a part of.
These no longer frame
the social array where
love and loyalty were once
some worthsome causes
to be cherished,
to be upheld
for all in the Humanity.
Selflessness then
was not a mere matter of word
it was the way,
the code to govern
a sate common life.

Now I've moved
so much further from then.
I look here and there in vain
for warmth, for emotions
for company
in a jungle of men
who though seem the same
as in the times gone by
are so different
for fellow men
care an iota not -
who pounces,
who is pounced upon
who survives,
and in what vein.
for as long as there is a feast close at hand
each man can unhesitatingly be
a beast, a hound
an unkind fella
to any or all around.
To question 'why' and 'what'
matters in the least
as standards of doubles
commonly abound
casting a curse
on several hapless lives,
lives that are marked
with craving for more
rather than content
to say for once
'no more'.

I too watch, perceive
and yet do not in the least
resist, or protest
I wilfully remain against
all that I once stood for
choosing to whither within
rather than stopping to exist
in my physical material form.
To eat, to breathe,
barely to be me
my primal instincts
to syrvive have won
they've won
in silencing the spiritual soul.
It is for this rason
that I believe
Alive I certainly am not.

Friday, February 06, 2009

बेटा आप कल हो हमारा

बेटा आप कल हो हमारा 
और हमारे अतीत की पहचान 
तुम्ही से,
मेरा मान सम्मान तुम्ही तो 
मेरा अति अभिमान भी तुम हो -
सो संभालना खुद को.

जीवन मार्ग नहीं आसाँ,  
जटिल है -
तुम चलना यूँ कि 
स्थिर क़दम हो और नज़र भी 
मिले भूत को शीतल छाओं 
तुम्ही से 
भविष्य बन बलिष्ठ खड़ा हो 
सक्षम, संयम सी नींव पर.... 
बेटा आप कल हो हमारा.

जो अब पूछो हक़ से -
क्या चली थी मैं भी 
इसी अदा से?
तो भरपूर हुंकार भरूंगी 
पुरखों, वेदों से सार निचुड़ कर 
धरा जीवन की लांघ चली थी 
फिर जब शरीर हो पड़ा 
था दुर्बल 
नैया गृहस्थ जीवन की 
खींच बढे हम 
नहीं सरल था 
पथ ये दुर्गम 
मेरे आतुर व्याकुल मन को 
तब भी 
भरपूर जीने की 
सीख मिली थी. 

अब जो धूमिल 
हो पड़ी है काया 
नहीं बची आशा आकांक्षा 
ह्रदय ज्वाला भी शेष नहीं अब 
नियति का क्या है ठिकाना 
कब भाग्य के पन्ने पलटाये 
कब बेजान हो खाकी जा मिले
मिटटी से; 
हाड मांस का ढांचा निर्बल
जाने किस दिन 
जाने किस पल 
हो शेष ... 
जाने कब 
जाने किस दम। 

तो सोचा आज 
बतिया लूँ तुम से 
कह दूँ ये मामता के मोह में 
बस फूल सजे हैं 
तुम्हारी ज़िन्दगी के रस्तो पे  
कुछ यूंकि
सब कांटे तो हम बुहार चुके हैं 
चुन चुन इतना दूर परे की 
कोई मचलती ब्यार कभी 
ना उड़ा ला पाए 
तले तुम्हारे 
किसी कांटे की 
चुभन कभी भी। 

यथार्थ की गर सुनोगे तुम तो 
बेटा बहुत ही परे कथा है,
तुम अभी से ये मानो बेटा -
ज़रूर हवा बहेगी 
यौवन में बदमस्त बयार की 
फिर बदलेंगे रंगीन मौसम 
झुलसती, चिंघाड़ती लू कभी 
और कभी पुरवाई 
सावन की खुनक लिए 
फिर पतझड़ की खलिश लगेगी 
कोमल स्पर्श फूलों के होंगे 
पर चुभन से बचना कहीं नहीं है,
हर राही को 
अन्यास निश्चित ही 
चुभीले काँटों की चुभन मिलेगी 

तब तुम धीरज साहस रखना 
हर जीवन पक्ष में बेटा 
पुरुष बन चलना 
पौरुष से चलना 
बंधू भ्राता से नाता रखना 
क्यूंकि मोड़ नए कई होंगे 
जो फिसल पड़े तो हाँथ बढ़ेंगे  
उठ बढ़ने की मदद मिलेगी 
नित नयी राहों पे जब भी मुड़ना 
ये हिम्मत रखना 
हर डगर चलेगी 
वही मिलेगी 
जिस ठौर हर रूह पलटेगी. 

विद्वान वही 
जो समझे गुर 
इस खुश्क कभी 
कभी हरियाले सफर 
को अविचल सर करने का 
बस राज़ यही है -
धरम कर्म का सार यही है 
समयकोष से मिले पल ले कर
दिल की धड़कन को 
बना कर दिशा सूचक 
तुम निरंतर 
बेडर चल पड़ना 
इसलिए कि 
जिस सिमत भी क़दम 
बढ़ चलेंगे बच्चा 
पाओगे कि पूर्णविराम 
नहीं दूर पड़ा है 
चलते जाओगे 
तब ही तो पाओगे 
मंज़िल निकट 
कुछ पग और पास 
खड़ी है। 

बेटा मेरा अंश 
और शेष भी तुम 
आतमसम्मान, मर्यादा की परिभाषा तुम 
चाहत का ईमान भी तुम 
सो संभालना खुद को... 

बेटा आप कल हो हमारा। 




frustration

However much I strive
to reach the shores
new waves knock me down
moving me away
further younder!

ZINDAGI KI EK SHAAM

zindagi ki shaam hai
aur kuch pal bitane
ateet ke sang
chal pade hai kadam
sane gard o ghubaar mein
har adchan se bekhabar
har hahakar ko kar darguzar
badh chale rahe
tumhare ghar talak.
lagan bas yoon hai
ke guzaar lain
kuch pal yahan thahar lain
kuch der
purani yadon ki thandi chaon mein.
kyonki shaam
to hai ab ho chooki
kuch hi der to aur hai roshni
kal ko jane kis pat ho dhoop khili?
aur jaane kab kis taraf kiska
ho raha suryaast ho?

Written while sitting in a traffic jam when going to meet a childhood friend after a long time. (July 2008)












+