तो आज कहते हो -
तुम खुबसूरत हो
और वह वक़्त भी था जब
मेरी तक रही टकटकी
तुम्हारी नजरों से
अपने प्रतीत स्वरूप की
पहचान पूछती थी
तुम्हारे अपनापे में सिमट
स्वयं का मान सम्मान
ढ़ुंढ़ती थी
और मेरा आईना़
तुम्हारा अस्तित्व
समूचे ज़माने की गरद लिए
मेरे प्रतिबिम्ब को धुमिल कर
प्रेम के नाम पर
कुरूपता का प्रमाण पत्र
निषठुरता से दे चल बढ़ा था
.............................
हाँ तुम्हारे ही हस्ताक्षर ने
तो मुस्कुरा कर -
आजीवन क़ैद का हुक्म दिया था -
अब आज कहते हो
तुम खुबसूरत हो!
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