सूनी कोख सजी थी
स्वर सही कर्णों से टकराया थी
मुबारक!
पर तुमने पराया धन तो पाया है।
जब खेली घर प्रांगण में
यौवन छुपा आँचल में
हर चपल चरण की आहट पर
संसार ने यूँ चौंकाया था -
संभालो!
कि पराया धन मदमाया है।
लाली सिंदूरी जब सजा
ड्योढ़ी के बाहर पग धरा
जननी के आँसु बह निकले
मन ने बावरी मामता पे
यह कह बाँध लगाया था -
रो मत!
तु ने पराया धन ही तो गँवाया है।
Jotted down in 1989
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