सुबह टहलते मज़बूत पेड़ के तनों को देखा तो ये ख़याल आया। और लगा के 'old fashioned' cultural traditions ऐसे ही हमारी संस्कृति सम्भाले हुए हैं। दोनों को बचाना ज़रूरी है।
कल दिन था पृथ्वी का
और मेरी नज़र सोख रही थी
स्थिरता पेड़ों की
जो इर्द गिर्द ज़मीन पे
ख़ुद को जमाये
अड़े खड़े थे
अपने कर्म पथ पे।
जड़ें वृद्ध वृक्ष की
संयम से डटी
समय पर पकड़ लिए
जीवन दामिनी
साँस फूँक रही
वसुंधरा को
वनसंहार के बावजूद
प्रलय प्रकोप से परे घसीटती
धरती को
बस वैसे ही
जैसे वृद्धा दादी
अपने परिवार को
रूढ़िबादी कहलाती
फिर भी
परंपराओं के आँचल में
सिमटाती रहती
अपने अनथक प्रयास से
अपने परिवार को
यूँकि कहीं
आधुनिकता की बाढ़
ना उजाड़ फेंके कहीं संस्कार
वो जो आत्मा को मानवता की
तरफ़ कर अग्रसर
परिपक्वता से
अमन की चादर
घर बाहर
पसराते हैं।
इन झुर्रियों ने यूँही
चढ़ाव उतार नहीं देखा
वक़्त का
और ना ही इस पेड़ ने -
यक़ीनन इन ने
कई करवटें ताकीं है
क़ुदरत के काल की
जिन झलकी में है असर
नर और वन संहार संग
पौरुष का प्रकृति प्रति
मृदु व्यवहार की।
No comments:
Post a Comment