तुम जितना दोगे
उस से ज़्यादा की कोई माँग नहीं
निभाने की क़सम मेरी थी
तुमने तो कभी खाई ही नहीं
यूँ भी -
उन दस्त से क्या लेन देन की
करें उम्मीद
उल्फ़तो जुर्रत में है छिड़ी रहती
जहां बेवजह तकरार;
मेरा माज़ी हमारे पाँव की
ज़ंजीर भी है
सब से बढ़ कर
आप की सुनायी दी हमें
कभी हाँ ही नहीं ।
No comments:
Post a Comment