Wednesday, October 12, 2011

उसकी सरगोशी में अब भी
मुसर्रत बाकी है, और बेईमानी भी

सो हर आहट पे धड़कन ज़रा 
धक्धाकती है, कि क्यूँ भला 
मेरी ख़ामोशी में बरजस्ता
तुम्हारी आवाज़ चली आती है -

यहाँ कहने सुनने को अब क्या रहा?

No comments: