Monday, March 16, 2015

अब क़दम थमते नहीं
हौसले थकते नहीं
राह की गहराईयाँ
वजूद की तन्हाईयाँ
क्यों कर क़दम उलझा सकें
ढ़लते उफ़क़ पे जो नजर गई
नित बदलते गुलाबी सायों में
तुम्हारे क़दर की छवी दिखी;
फिर मंज़िल का जबपता रहे
क्युं लापता से हम फिरें?

तुम ने भेजा था रूह लिये
कई क़तरे हैं आँसू के
कुछ किचड़ से भी मलिन हुऐ 
कोरे दामन को इन छींटों से 
कहां मैं कभी बचा सकी
बेशक समझ में देर हुई 
पर सुना पश्चताप की है 
ताप खरी - तो क्या
आशा की करूँ उम्मीद नहीं?

निर्बल, निश्छल, निर्भीक
चल पड़ी समझ बस राज़ यही
तुम से तुम तक आ 
फिर जाने का आदम की
प्रकिती से चार पहर का नाता है
रस्मों रिश्तों के परदे ने
अपने जाल में सब को बाँधा है।

सेहर सजी थी जब 
मेरे रूत की 
उरूज पे था उफान खड़ा
बेपरवाह मेरा सुरूर था
लेकिन वह पहर कटा  
थी दोपहर की धूप कड़ी, 
जिस्म तप व तपिश से चूर हुआ
रहज़न. राहगीरों से लूटता था
साँझ ढ़ले सब छोड़ चुके
खंडहरों में क्या बसता है!
हैं बिछड़ चुके सब हमसफ़र
जिन पे बेवजह मुझे सदा
हक़, गुमान और ग़ुरूर रहा।

०इस रहगुज़र पे मेरे रब
बस तेरा मेरा साथ है अब
इसी यक़ीन पे साहस कर
मैंने निगाह और सर उठाया है, 
कुछ चिराग़ जो दूर टिमटिमा रहे
तुम्हारी क़ुदरत ने ही 
तो झलकाया है,
थोड़ी उनकी लौ को और 
अपनी रौशनी से हयात दे दो,
बड़ी मुश्किलों से मेरे खुदा 
मैने टूटे दिल को ज़िदगी के
अंधेरों में बिखरने से बचाया है 
मंज़िल देखो है क़रीब दिखे
इस ठौर क़ल्ब फिर कैसे टिके
ज़रा कुन-फ़यकून की फूँक तो दो 
कि साँस को दम और आस मिले
कुछ युं कि बस 
हम यूँ चले और युँ मिले
पकड़े तुम्हारी रज़ा की डोर  
हर राज-रास से मूँह को मोड़ 
तुम्हारी अमानत पहुँचाने को
अपनी जान लिये हम आते हैं।





 

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