Wednesday, May 04, 2016

देखो हो लुप्त
ठहरी हूँ अंधेरों में
इस तर्क पर आस पसारे 
कि हर ज़िंदगी का बस एक ही ठिकाना है
तो कहाँ से आयी हूँ 
किस ठौर को जाना है
लापता है मेरी रूह
सो तुम्हें ही तो मार्ग दर्शाना है
वो भी कुछ इस तरह 
कि आँसू और हँसी कि होड़ कुश्ती ना हो
साँस कुछ यूँ चले रब
कि अपनी प्रवृति से खुदी अजनबी ना हो
दो होंसला कि डगमग सी बढ़ूँ सही
राह मगर तुम्हारी रोशनी से प्रदर्शित तो हो.



बहुरूप मेहफ़िलों में कुछ यूँ 
है बिन सज के बसे हम 
कि स्वरूप ही 
मेरा मुखोटा दिखता है 
नज़रें ढूँढती है कुछ अपनापन चेहरों में
यहाँ हर शख़्स मगर 
मुझे अनजान नज़रों से तकता है
फ़िक्र ये है कि परदेसी बन 
फिर ब्याबान राहों पे जा निकलू
या ख़ुद को भी मुखोटा तान  
अपनों की पहचाँ की नज़र कर दूँ?

दिल का कलर

नीले आसमान पे
गहरे मँडराते बादलों के झरोके से
मन के भीतर झाँका तो 
उस ने बेसाख़ता कहा
राही छूटते टूटते धरौंदों का 
ग़म न कर
तारिकियों में सिसकियों और आह से 
दम ना भर
गुज़रते वक़त के छींटों से
धूमिल पड़ता है, पर कहाँ बदलता है 
क़ुदरत का दिया कलर? 
मेरा दिल तो अब भी गुलाबी है।