बहुरूप मेहफ़िलों में कुछ यूँ
है बिन सज के बसे हम
कि स्वरूप ही
मेरा मुखोटा दिखता है
नज़रें ढूँढती है कुछ अपनापन चेहरों में
यहाँ हर शख़्स मगर
मुझे अनजान नज़रों से तकता है
फ़िक्र ये है कि परदेसी बन
फिर ब्याबान राहों पे जा निकलू
या ख़ुद को भी मुखोटा तान
अपनों की पहचाँ की नज़र कर दूँ?
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