नीले आसमान पे
गहरे मँडराते बादलों के झरोके से
मन के भीतर झाँका तो
उस ने बेसाख़ता कहा
राही छूटते टूटते धरौंदों का
ग़म न कर
तारिकियों में सिसकियों और आह से
दम ना भर
गुज़रते वक़त के छींटों से
धूमिल पड़ता है, पर कहाँ बदलता है
क़ुदरत का दिया कलर?
मेरा दिल तो अब भी गुलाबी है।
No comments:
Post a Comment