Friday, May 16, 2014

कल्पना से प्रत्यक्ष तक

हवा के भी पंख होते हैं
जब हम आस व आशा
का दम भर
सिसकियों के करवट बदलते हैं -
पोर पोर सिहरा
हर रोम को सहला
हलके दबे पाँव
पलकों से ख़्वाब उठा
मन की लरगोशी से
संगीत चुरा - मददहोश लय
फिज़ाओं में कुछ यूँ
बिखेरते हैं कि प्रत्यक्ष रेगमय
हो उठे उस इंद्रधनुषी प्रतिबिम्ब से
जो कल्पना के पट पर
ख़ुद हम बिखेरते हैं -
सो तुम्हारी चाहत अब मेरी धुन हैैै
लब पे मिलन का है गीत
चित्र पट की लकीरों
में मैंने बस तुम्हारा नाम
कर दिया है अंकित ।



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