Sunday, December 06, 2015

हाँ सच है और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवाय
राहतें और भी हैं वुसल की राहत के सिवाय
पर इस का क्या कीजे जो वुसल के होने से जनाब
दिल के वीरानों को जीने की जसारत मिल जाये
कुछ मुश्किल नहीं कि फिर ख़ुद भी जी लें
और कुछ मुर्दा निगाहों में बसीरत भर जायें;

सुनो क्यूँ सामने रखते हो मेरे ये बेलुत्फ सवाल?
कहाँ महबूब से जुदाई 
कहाँ बेवुसल तारीकियों में हमारे अहवाल?
औरों के ग़म का क्युं ख्वामख़ाह है हिसाब आज?
पहले ख़ुद तो जी लें ज़रा, 
फिर फ़ुरसत से कर पाएँगे हम इंतख़ाब
राहते वुसल को पा ही मेरा क़ल्ब करेगा
पराये ग़मों का बख़ूबी इलाज......

सच है और भी ग़म हैं मुहब्बत के सिवाय
राहतें और भी हैं वुसल की राहत के सिवाय
पर क्या बेमानी व बेमोल नहीं ज़िंदगी का सफ़र 
इन दो के बजाय ।

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