Friday, December 23, 2016

प्यार पे अब तक तो हम ने 
ख़ूब गिरह बांधे है
कि छूटे हाथ से लगाम 
तो उम्मीदें हो जाएँ बेहिसाब दराज़;

मेरे कूचे में ना वो हैं 
ना किसी आहट से होता है  
उनके पास आने का अन्दाज़,
कभी मिले भी परछाइयों में  
तो बहानो से मेरे जज़्बातों को 
कुछ और लूट लिया!

फिर भी क्या करूँ -
खलक से पहले किए 
वादे को वफ़ा करना है
प्यार उस से मुझे है
उसको मुझसे उल्फ़त हो कि ना हो।

जब महबूब ही ने मेरे हक़ को
समझने का हक़ ही ना लिया 
तो राह मेरी है ये -
चाहे सदियां ही सही 
तनहा मुझको ही सफ़र करना है!

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