प्यार पे अब तक तो हम ने
ख़ूब गिरह बांधे है
कि छूटे हाथ से लगाम
तो उम्मीदें हो जाएँ बेहिसाब दराज़;
मेरे कूचे में ना वो हैं
ना किसी आहट से होता है
उनके पास आने का अन्दाज़,
कभी मिले भी परछाइयों में
तो बहानो से मेरे जज़्बातों को
कुछ और लूट लिया!
फिर भी क्या करूँ -
खलक से पहले किए
वादे को वफ़ा करना है
प्यार उस से मुझे है
उसको मुझसे उल्फ़त हो कि ना हो।
जब महबूब ही ने मेरे हक़ को
समझने का हक़ ही ना लिया
तो राह मेरी है ये -
चाहे सदियां ही सही
तनहा मुझको ही सफ़र करना है!
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