ना उसके लब हिले
ना लफ़जो ने कुछ कहा
जिस्म की एक ज़ुबान थी
जिसे रूह ने बरबस ही सुन लिया
पास खड़ी अर्द्धांगिनी
के अधरों पे सजी यूँ
गर्व भरी मुस्कान थी
जैसे हो पूछती मैं कौन
बिना अधिकार
आख़िर क्यूँ हुँ खड़ी वहाँ?
साथ वो है, साथी वही
जिसे उसने है चुना -
लफ़जों की अब
कोई गुंजाइश यहाँ कहाँ?
ना लफ़जो ने कुछ कहा
जिस्म की एक ज़ुबान थी
जिसे रूह ने बरबस ही सुन लिया
पास खड़ी अर्द्धांगिनी
के अधरों पे सजी यूँ
गर्व भरी मुस्कान थी
जैसे हो पूछती मैं कौन
बिना अधिकार
आख़िर क्यूँ हुँ खड़ी वहाँ?
साथ वो है, साथी वही
जिसे उसने है चुना -
लफ़जों की अब
कोई गुंजाइश यहाँ कहाँ?
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