Wednesday, March 01, 2017

कुछ नहीं बदला

कल आँगन में थी पसरी धूप

मुझमें जीने की चाह जागता 

किरणों में जगमगाता तुम्हारा स्वरूप 

और आज की ये सर्द शाम

सिकुड़ती साँसों से कह रहीं अविराम

पूछती हैं मुस्कुरा दुहरा कर

तुम्हारा हमेशा दिया जवाब -

कुछ नहीं बदला ?


छिटकी चाँदनी बादलों को परे सरका

खिड़की से झांका तो अहसास हुआ -

अंधेरा है वहाँ

जलाए थे ख़्वाबों के तुमने द्वीप जहां 

मेरी रात बेचैन हुई 

तो प्रशनगो मेरी तनहाई हुई -

कुछ नहीं बदला?


नमी आँखो की झिलमिला

जब बरस पड़ी बेकल

तब स्पष्ट सरगोशी में 

काल ये सच बोल गया,

है सही सब कुछ वही

हमारी कायनात 

हमारे जज़्बात नही 

बस बदले सिर्फ़ तुम -

और कुछ नहीं बदला।








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