Monday, January 09, 2017

सलाह टैगोर और गुलज़ार की है
सो कैसे भला टाली जाये,
चलो इसी बात पे
रोके लेते हैं खुद को हम -
कर देते देते है मद्धम
अपने उम्मीद के दीये की जलन,
फूल रख देते हैं अलग सीने से -
गुलदस्ते में सजे
दूर सही, दिखते तो हैं,
नदी का काम है बहना
उसे बांधें क्यूँकर?
लहरों को छू के हवा
रूखसार से सटती तो है;
लेकिन दिल के साज को न छेड़ें
ये शर्त ज़रा मुश्किल सी है
बड़े दिन बंद कमरे में
थे ये ख़ामोश पड़े
हौले से भी हाथ फिरा लुँ
तो चटख़ जाएँगे क्या?
मजबूर हुँ -
छेड़ूँ नहीं जो मन की मैं धुन
साज़ तो बच जाएगा
हम ख़ुद ही बिखर जाएँगे
.....
मेरे साज़ को सुर बेसुर ही सही
बस बजने दो यार!

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