Tuesday, February 28, 2017

मेरी बाती की लौ

चाँद उतरा था
मेरे आँगन में लिए
सूरज की चंद शुआओं का नूर
मैंने पलटाया उसे ये कह कि -
चाहा है जिस शम्स को तहेदिल से भरपूर
यूँ कैसे ले लूँ?
कैसे करूँ टुकड़ो में बटी चाहत क़ुबूल?
दस्तूरे इश्क़ है 
और रस्में व्यापार भी हैं क़ायल 
सो उसूलन है लाज़िम  
कि मिले पुरे के बदल पूरा ही हुज़ूर;

और हमने कब नाप तौल में अपने
कोई चूको कसार छोड़ी है?
हमने तो रब्बानियत के नाम पे
बोरसी में ईंधन जोड़ी है  
तो बस जिस आंच में बस 
मैंने सोलह पहर जानी है
उसी मुकम्मल के तकमील की 
हमें रहना है मुन्तज़र।

मुंतज़िरो मुश्ताक़ ज़रूर होते हैं तनहा 
गो कि गहन है और 
है भी नागवार बहुत,
ठहरा है यकीन क़ुदरत पर;
आएगा कभी तो वो
मेरी सुबह की रौनक़ बन कर
वऱना परवाह नहीं  
रहे रात सही
ख़िलक़त से मेरी यूँ गुफ़्तार सही।

चाँद जाओ कि मेरी बाती मैं
लौ और लपट बाकी है
गो है कमजोर सही,
तनहा वीरानों में वफ़ादारी से जलती तो है
सूरज ले जाए अपनी शुआओं का नूर 
ड्योढ़ी पे ठहरे अन्धेरो की 
क़तई कोई परवाह नहीं -
मेरी नज़रों को इस ढिबरी की लौ में
सिमटने की आदत सी है.



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