Do I, overthink? ... but, say if I do, then what's wrong with it. How else do I reach solution, conclusion about Your design and then attempt... at the very least to conform and align myself to Divine will.
Today, my light cheery mood was transformed into a pensive mode, triggered by watching the Mahabharata shlokas that Pash sent me:
https://youtu.be/SPdBWac4fQk?si=2qzO1_caMOQaXPqV
Nice, profound but soch mein daal gaya.
Then serious contemplation brought forth this furied query directed at who else but the Supremo.
जब अचल, अक्षोब, श्रीय विहीन साधना
ही प्यारी तुम को
तो फिर ये मोह मोह के धागे जोड़े क्यों?
क्या करें हम इसका -
प्रसाद मान करें ग्रहण उपहार
या पाप समझ निर्मम तिरस्कार?
प्रारब्ध है ये 'गर
तो तुम्हारी परीक्षा fair नहीं,
जो हाथ नहीं मेरे उसके
आवत-जावत की क्रीड़ा पर
मेरा चलता कोई बस
ज़ोर, control नहीं !
वो जो मेरे हाथ नहीं तो
क्यों करो परीक्षा पात्र बना कर
मेरी साँसों का दुरोपयोग यूँही?
और इस दीक्षा के अगर
ज़िम्मेदार जो हो तुम तो
सरल निष्पक्षता से सार बतलाना
भी गुरु धर्म ही का part बना,
फिर बोलो
सब तज अचल सागर सा
विमूर्त बना जग बसाने की
ये तुमरी अपेक्षा, प्रभु -
ये प्रभुत्व का है मुज़ाहिरा
या केवल
मानवप्रीत प्रति तुम्हारा
अविरक्त प्रतिशोध रहा ?
PS: hello heed my prayer -
Our Lord in Heaven
Hallowed be thy name
Thine Kingdom come
Thy will be done
On Earth as is in Heaven...
🙏🏼 🤲🏼🙏🏼🤲🏼🙏🏼🤲🏼
य
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