क्या लिखूं
और क्यूँ भला
कई पन्ने तो छपते हैं
निस दिन
हर्फ़ बिखरते रहते है
ख्यालों, उम्मीदों अव्हेल्नाओ की लहर बन
इंसानी फितरत को छेड़ते हुवे
बस ठेलते ही रहते हैं
भावनाओं को कभी
इस ठौर तो कभी उधर -
लिखूं तो तभी
जब जिसे पढ़
ठहराव के पड़ाव पर
पाँव टिकें!
और क्यूँ भला
कई पन्ने तो छपते हैं
निस दिन
हर्फ़ बिखरते रहते है
ख्यालों, उम्मीदों अव्हेल्नाओ की लहर बन
इंसानी फितरत को छेड़ते हुवे
बस ठेलते ही रहते हैं
भावनाओं को कभी
इस ठौर तो कभी उधर -
लिखूं तो तभी
जब जिसे पढ़
ठहराव के पड़ाव पर
पाँव टिकें!