प्यासी हूँ
सो लफ़्ज़ों के बुलबुले लपेट
पंक्तियाँ बटोरती हूँ
हर्फ़ पिरोती हूँ
आधेअधूरों को तोड़ती मरोड़ती हूँ
फिर अपने तुम्हारे ख्वाबों
का सिलसिला बुन
सिरहाने समेटती हूँ -
शाम इसी तकिये पे
सोना है।
सो लफ़्ज़ों के बुलबुले लपेट
पंक्तियाँ बटोरती हूँ
हर्फ़ पिरोती हूँ
आधेअधूरों को तोड़ती मरोड़ती हूँ
फिर अपने तुम्हारे ख्वाबों
का सिलसिला बुन
सिरहाने समेटती हूँ -
शाम इसी तकिये पे
सोना है।
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